Wednesday 15 February 2023

अहीर रेजिमेंट: एक अनावश्यक मांग

 पिछले दिनों सदन में हमारे लोकल सांसद और भाजपा के नेता श्री दिनेश लाल यादव जी भी अहीर रेजिमेंट की मांग किये थे. कुछ साथी सोसल मीडिया पर भावुक दिखे थे. क्या वे यह मांग भाजपा के बिना सहमति के उठाये थे? जब पूरी दुनिया जाति व्यवस्था को मानसिक बीमारी मानकर जातिप्रथा को जड़ से ख़त्म करने की वकालत कर रही है तो जाति व्यवस्था को पालने वाले मांग क्यों है? नोमनक्लेचर के इस दौर में सबसे पहले जाति/धर्म/क्षेत्र के नाम पर बने रेजिमेंट इत्यादि का नाम बदल देना चाहिए.

सपा, बसपा और भाजपा नेता इसको अपने राजनीतिक हितों के लिए उठाते रहें है. वे इसके पक्ष में रेजांगला शौर्य की गाथाएं भी सुनाते है और दूसरा तर्क देते है की कई रेजिमेंट इस तरह के नाम पर है. सशक्त अहीरों की एक बड़ी आबादी संगठन बनाकर इसका मांग करती रही है. 

हम इसके खिलाफ है. किसी जाति, धर्म या क्षेत्र के नाम पर सेना, अर्द्धसेना या पुलिस के किसी टुकड़ी या रेजिमेंट का नाम नहीं होना चाहिए. उनके काम के आधार पर उनका नाम होना चाहिए. जैसे आर्टिलरी, इन्फेंट्री ....आदि.

Monday 1 August 2022

गरीबी रेखा के मापदंड और नीतिगत निहितार्थ

     गरीबी पूरी दुनिया में हमेशा ज्वलंत मुद्दा के रूप में पायी जाती है। गरीबी रेखा के प्रतिमान क्या होने चाहिए? यह पूरी दुनिया में हमेशा चर्चा का विषय रही है। अगर स्थितियां ऐसी ही रही तो यह कभी न समाप्त होने वाली बहस के रूप में देखी जा सकती है।  अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के गणित को सुलझाने के लिए अनेक प्रयास किये जा चुके है और अभी जारी भी है। भारत सरकार ने भी आजादी के बाद  तात्कालिक योजना आयोग के सानिध्य में कार्यकारी दल, विशेषज्ञ दल और टास्क फोर्स के माध्यम से गरीबी रेखा को परिभाषित किया और हर प्रयास में गरीबी रेखा की एक खास अवधारणा  विकसित हुई लेकिन सरकार का हर प्रयास महज कागजी कार्यवाही ही सिध्द हुई जो कि धरातलीय सच्चाई का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही थीयोजना आयोग के सानिध्य में अंतिम बार डॉ सी० रंगराजन के अध्यक्षता में विशेषज्ञ दल ने गरीबी रेखा निर्धारण का एक नया फार्मूला दिया।  इस कमेटी ने बताया कि अगर गाँव में रहने वाला व्यक्ति 32.40 रु० और शहर में रहने वाला व्यक्ति 46.90 रु० प्रतिदिन या इससे अधिक कमाता है तो वह गरीब नहीं है अर्थात वह व्यक्ति गरीबी रेखा से ऊपर जीवन-यापन कर रहा है। योजना आयोग द्वारा दिए गए पूर्ववर्ती फार्मूले की तरह यह फार्मूला भी लोगों को रास नहीं आया। इस फार्मूले से गरीबी निर्धारण से ज्यादा राजनीतिक सरगर्मी मापी गई। गरीबी रेखा के इस प्रतिमान को कुछ विशेषज्ञ भूखमरी और कुपोषित रेखा कहे थे तो कुछ लोग इसे कुत्ता-बिल्ली लाइन कह कर इस परिभाषा का उपहास उड़ाये। 2014 के आम चुनाव में गरीबी मापदंड की इस परिभाषा को उसी तरह भुनाया गया था जैसे कालाधन, घोटाला और महंगाई।

            वर्तमान सरकार ने डॉ सी० रंगराजन कमेटी के परिभाषा को अस्वीकार करते हुए एक नए कमेटी का गठन कर गरीबी को नए तरीके से परिभाषित करने की बात की। जिसे नीति आयोग के पहले मीटिंग में गरीबी रेखा निर्धारण के लिए एक टास्क फोर्स बनाने का निर्णय लिया गया। 16 मार्च 2015 को नीति आयोग के वाइस चेयरमैन डॉ अरविन्द पनगरिया के अध्यक्षता में “भारत में गरीबी उन्मूलन” के लिए 14 सदस्यी एक टास्क फोर्स बनी। इस टास्क फोर्स को गरीबी मापदंड की कार्यकारी परिभाषा विकसीत करना था तथा गरीबी उन्मूलन के लिए एक रोडमैप तैयार करना और साथ ही साथ गरीबी उन्मूलन के लिए कारगर नीतियों के सन्दर्भ में सुझाव देना था। इस टास्क फोर्स को जून 2015 तक अपनी रिपोर्ट तैयार करना था। 21 जुलाई 2015 को 30 अगस्त 2015 तक इसका समय विस्तारित किया गया। भारत में गरीबी मापदंड के इस नये परिभाषा का इस समय बुद्धिजीवी से लेकर आम आदमी तक बड़ी शिद्दत से इंतजार कर रहा है लेकिन हैरत की बात है कि निश्चित्त समय बीतने के दो साल बाद भी टास्क फोर्स द्वारा विकसित आधिकारिक परिभाषा जो भारत सरकार के विचार का प्रतिनिधित्व करती हो, आज तक पब्लिक डोमेन में नहीं आयी है और न ही यह पता है कि उस टास्क फोर्स का समय कब तक बढ़ाया गया है।

भारत जैसे विकासशील देश जहाँ  कुपोषण का स्तर भयानक स्थिति में हो। किसान और मजदूर गरीबी और बेबसी की वजह से आये दिन आत्महत्या कर करे हो। देश की एक बड़ी आबादी भोगानुभव में जी रही हो। वहाँ (उस देश में) आधिकारिक तौर पर यह न पता हो कि गरीब कौन है? गरीबी की प्रकृति क्या है? गरीबों की संख्या कितनी है? यह सरकार के अकर्मण्यता को दर्शाता है। भारत को अपने कुपोषण, भुखमरी और गरीबी की वजह से कई बार वैश्विक पटल पर शर्म से झुकना पड़ता है। भारत सरकार और सूबे की सरकारों को यह चाहिए कि वे सर्वप्रथम गरीब और गरीबी के प्रकृति को पहचाने फिर उसके उन्मूलन हेतु नीतियां चलायें। उन नीतियों  का निहितार्थ सिर्फ कागजी न होकर धरातलीय कार्यकारी भी हो।



परिचय

राघवेंद्र यादव

रिसर्च स्कॉलर

सेंटर फॉर स्टडीज एण्ड रिसर्च  इन  इकोनॉमिक्स & प्लानिंग

स्कूल ऑफ सोशल साइंस

सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात

गांधीनगर, गुजरात, 382029

Email- raghavendra.pahal50@gmail.com

 

 

गरीबी रेखा निर्धारण: एक नीति विषयक पहल

गरीबी एक निर्विवाद सत्य है लेकिन यह जानना बेहद विवाद का विषय है कि गरीब कौन है? सामान्यतया, गरीबी निर्धारण मानवीय स्थिति का अध्ययन है जिसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक…. आदि प्रतिबिम्बों के रूप में देखा जा सकता है। अगर हम गरीबी रेखा निर्धारण के इतिहास को देखे तो पहले पोषक तत्वों के आधार पर गरीबी रेखा का निर्धारण किया जाता था लेकिन आज वैश्वीकरणउदारीकरणऔर निजीकरण ने गरीबों की इतनी प्रजातियां पैदा कर दी हैं कि इसकी प्रकृति को समझना अर्थशास्त्रियों और सामाजिक वैज्ञानिकों के लिए बेहद कठिन और पेचीदा हो गया है। वैसे वैज्ञानिक तौर पर गरीबी निर्धारण के लिए कोई एक निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती है जिसके नीचे जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को गरीब और उसके ऊपर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति को अमीर कहा जा सके क्योंकि गरीबी एक गुणात्मक चर है। जिसकी मात्रात्मक माप संभव नहीं है। फिर भी सामान्य तौर पर कुछ मूलभूत वस्तुओं का सूचकांक बना कर जीवन यापन करने के लिए एक रेखा खींची जा सकती है जिस पर एक आम आदमी को आत्म सम्मान के साथ स्वास्थ्य जिंदगी जीना मुमकिन हो। गरीबी रेखा का यह मापदंड गरीब और गैर-गरीब को अलग कर सकती है।

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गरीबी रेखा के गणित को सुलझाने के लिए अनेक प्रयास किये जा चुके है और अभी भी जारी है। भारत में वर्तमान समय में  गरीबी को परिभाषित करने के लिए नीति आयोग के सानिध्य में मार्च 2015 में एक कार्य दल का गठन किया गया है। इस कार्य दल को गरीबी रेखा मापदंड की कार्यकारी परिभाषा विकसीत करना, गरीबी उन्मूलन के लिए एक रोडमैप तैयार करना और साथ ही साथ गरीबी उन्मूलन के लिए कारगर नीतियों के सन्दर्भ में सुझाव देना है। इस कार्य दल को जून 2015 तक अपनी रिपोर्ट तैयार करना था। 21 जुलाई 2015 को 30 अगस्त  2015 तक इसका समय विस्तारित किया गया लेकिन हैरत की बात है कि निश्चित्त समय बीतने के दो साल बाद भी इस कार्य दल द्वारा विकसित आधिकारिक परिभाषा जो भारत सरकार के विचार का प्रतिनिधित्व करती हो, आज तक पब्लिक डोमेन में नहीं आयी और न ही यह पता है कि उस कार्य दल का समय कब तक विस्तारित किया गया है।

भारत जैसे विकासशील देश जहाँ कुपोषण का स्तर भयानक स्थिति में हो। किसान और मजदूर गरीबी और बेबसी की वजह से आये दिन आत्महत्या कर रहे हो। देश की एक बड़ी आबादी भोगानुभव में जी रही हो। वहाँ (उस देश में) आधिकारिक तौर पर यह न पता हो कि गरीब कौन है? गरीबी की प्रकृति क्या है? गरीबों की संख्या कितनी है? यह सरकार के अकर्मण्यता को दर्शाता है। गरीबी अध्ययन महज दो देशों या राज्यों में तुलना का विषय ही नहीं वरन यह नीति विषयक भी है। इसलिये सरकार आधिकारिक तौर पर गरीबी रेखा का प्रतिमान सुनिश्चित करे जिससे गरीबों का सही चेहरा सामने आएगा और सही मायने में गरीबों के प्रसार का पता चलेगा। गरीबी की प्रकृति और गरीबों के प्रसार का सही आकड़ा ज्ञात होने पर गरीबी उन्मूलन के लिए बनाई गई रणनीति ज्यादा सार्थक और कारगर होगी। गरीबी उन्मूलन के लिए बने रणनीतियों का निहितार्थ सिर्फ कागजी न होकर जमीनी स्तर पर क्रियाशील भी होना चाहिए।





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राघवेंद्र यादव

रिसर्च स्कॉलर

सेंटर फॉर स्टडीज एण्ड रिसर्च  इन  इकोनॉमिक्स & प्लानिंग

स्कूल ऑफ सोशल साइंस

सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ गुजरात

गांधीनगर, गुजरात, 382029

Email- raghavendra.pahal50@gmail.com

 

Monday 16 May 2022

संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा: अवसर और चुनौतियाँ

संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा: अवसर और चुनौतियाँ

 *राघवेंद्र यादव

 

संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) पूरवर्ती केंद्रीय विश्वविद्यालय संयुक्त प्रवेश परीक्षा (सीयूसीईटी) का संशोधित रूप है। सीयूसीईटी 2010 में यूपीए के कार्यकाल में शुरू हुआ था। सीयूसीईटी नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए बनी थी। बाद में कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय और राज्य विश्वविद्यालय और जुड़ गए। अगर अब उस प्लान का विस्तार कर पुरे देश के उन 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जोड़ दिया गया जो शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार से सम्बद्ध है तो यह सराहनीय कदम है। इसकी मांग बहुत पहले से अकादमिक जगत में चल रही थी लेकिन वे सिर्फ 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए ही क्यों? जबकि यूजीसी के वेबसाइट पर 54 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं। वे विश्वविद्यालय जो शिक्षा मंत्रालय से जुड़ें हैं उनमें सीयूईटी लागू है। लेकिन जो केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा मंत्रालय से सम्बद्ध न होकर भारत सरकार के अन्य मंत्रालयों से सम्बद्ध हैं; उन विश्वविद्यालयों में भी सीयूईटी लागू होना चाहिए। वास्तव में सीयूईटी ठीक उसी तरह का एक यूनिक मॉडल होगा जैसे आईo आईo टीo, आईo आईo एमo, मेडिकल कॉलेज (एनo ईo ईo टीo), नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (क्लैट) और अन्य इलीट इंस्टिटूशन्स में प्रवेश परीक्षा थी। ‘संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा’ को ‘केंद्रीय विश्वविद्यालय संयुक्त प्रवेश परीक्षा’ बनाकर इसको सिर्फ सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लागू किया जाना चाहिए तथा राज्य विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यायलयों और अन्य में नहीं। लेकिन हां, सभी अलग-अलग राज्यों के राज्य विश्वविद्यालयों के लिए एक फार्म और एक परीक्षा पद्धति होनी चाहिए अर्थात एक राज्य में उस राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और उसके संघटक कालेजों के लिए एक संयुक्त प्रवेश परीक्षा होनी चाहिए जिससे उस राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और उसके संघटक कालेजों में दाखिला मिल सके।

शिक्षा मंत्रालय (पूरवर्ती मानव संसाधन विकास मंत्रालय) भारत सरकार ने सीयूईटी के माध्यम से प्रवेश परीक्षा करवाने का दायित्व राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) को दिया है। सीयूईटी का पुरे देश में विरोध हो रहा है और इसे बंद करके पहले जैसी प्रणाली को लागू करने की मांग की जा रही है। विरोध होना सही भी है क्योंकि पुरे देश से आने वाले ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्र के छात्रों पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा खास तौर से राज्य स्कूल बोर्डों से पढ़ने वाले छात्रों और छात्राओं पर। मेरे ख्याल से इसका विरोध सिर्फ  संशोधन के लिए होना चाहिए। सीयूईटी को बंद करके पहले जैसी प्रणाली के लिए नहीं क्योंकि अलग-अलग विश्वविद्यालयों का अलग-अलग फॉर्म भरना, फीस जमा करना, परीक्षा देना इत्यादि चीजें छात्रों और छात्राओं के लिए अवसर सीमित कर देती है तथा सरकार के संसाधन ज्यादा खर्च होते है। अगर एक फॉर्म और एक परीक्षा से देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय और संघटक कालेजों में या एक फॉर्म और एक परीक्षा से किसी भी एक राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और संघटक कालेजों में दाखिला पाने के अवसर हो तो यह अच्छा है और इसे होना चाहिए। इससे छात्रों और छात्राओं का समय, पैसा समेत कई तरह से लाभ होगा। यह लाभ सिर्फ छात्रों और छात्राओं का ही नहीं अपितु इससे सभी विश्वविद्यालयों का मानव श्रम बचेगा तथा साथ ही साथ आर्थिक बोझ भी कम होगा। केंद्रीय शैक्षणिक संस्थानों के दाखिला प्रक्रिया में एकरूपता लाने की दिशा में यह एक सराहनीय कदम है। एकरूपता होने के कारण लोगों को समान अवसर मिलेंगे।

विश्वविद्यालयों में दाखिला पाने के लिए सिर्फ तीन प्रणाली हो सकती है। पहला प्रवेश परीक्षा, दूसरा न्यूनतम योग्यता के मेरिट के आधार पर और तीसरा प्रथम आगमन, प्रथम स्वागतम के आधार पर। इसमें सबसे सशक्त और अच्छा प्रवेश परीक्षा प्रणाली है। भारतीय संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में होने के नाते भारतीय स्कूल प्रणाली में केंद्र तथा राज्य के स्कूल बोर्डों में विविधता है और अलग-अलग राज्य के स्कूल बोर्डों में भी विविधता है। अलग-अलग स्कूल बोर्डों के पाठ्यक्रम एवं मूल्यांकन पद्धति में एकरूपता नहीं है। जो  स्कूल बोर्ड मूल्यांकन का उदार पद्धति अपनाते है उन बोर्ड के छात्रों का लाभ होगा। जिसमें सीबीएसई और आईसीएससी जैसे बोर्ड शामिल है। कुछ स्कूल बोर्ड  सामान्य मूल्यांकन पद्धति अपनाते है और कुछ स्कूल बोर्ड शख्त मूल्यांकन पद्धति अपनाते है। अगर दाखिला प्रवेश परीक्षा की मेरिट के अलावा कक्षा की मेरिट पर होगी तो जो स्कूल बोर्ड मूल्यांकन का शख्त पद्धति अपनाते है उन स्कूल बोर्ड के छात्रों और छात्राओं का नुकसान होगा। ज्ञानार्जन आधारित अध्ययन और अंक संग्रहण आधारित अध्ययन, ये दो अलग-अलग पढाई के तरीके है। अंक संग्रहण आधारित अध्ययन कक्षा की परीक्षा में अच्छा अंक लाने में सहायक हो सकता है लेकिन जरुरी नहीं है कि इससे प्रवेश परीक्षा में भी अच्छा नंबर आये जबकि ज्ञानार्जन आधारित अध्ययन करने से प्रवेश परीक्षा में अच्छा नंबर लाया जा सकता है। अगर न्यूनतम योग्यता के मेरिट के आधार पर प्रवेश दिया जायेगा तो गरीब, ग्रामीण और सुदूरवर्ती छात्रों पर नकारात्मक असर पड़ेगा और फलस्वरूप गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ती जायेगी। शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों का विषय है। केंद्र सरकार सिर्फ केंद्राश्रित शैक्षणिक संस्थानों को संचालित और निगमित करने के लिए विधि बना सकती है। राज्याश्रित शैक्षणिक संस्थानों लिए नहीं। राज्य अपने शैक्षणिक संस्थानों को संचालित और निगमित करने के लिए खुद विधि बनायेंगे। एनटीए, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार की एजेंसी है तो उसको केंद्र सरकार के शैक्षणिक संस्थानों के लिए प्रवेश परीक्षा लेना चाहिए। सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों का नहीं। राज्यों के विश्वविद्यालयों में विविधता है इसलिए एक प्रवेश परीक्षा से सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों में दाखिला नहीं लिया जाना चाहिए।

यूजीसी के चेयरमैन डॉ मम्मीडाला जगदीश कुमार एक इंटरव्यू में बता रहे थे कि शैक्षणिक संस्थान सीयूईटी के अंक के आलावा मेरिट के आधार पर न्यूनतम योग्यता निर्धारित कर सकते है। अब सवाल यह है कि इसकी जरुरत क्यों है? और अगर ऐसा किया जायेगा तो इसका असर किस तबके के छात्रों और छात्राओं पर पड़ेगा? जब सीयूईटी अपने मूल में कक्षा के मेरिट सिस्टम के खिलाफ और प्रवेश परीक्षा के मेरिट पर आधारित है तो क्या सरकार यह बतायेगी की सीयूईटी के प्रवेश परीक्षा में अच्छे अंक लाने के बावजूद न्यूनतम योग्यता में कक्षा के मेरिट का औचित्य क्या है? क्या दाखिला के लिए प्रवेश परीक्षा पर्याप्त मानदंड नहीं है? या फिर यह शोषण करने की साजिश है और अच्छा करने के नाम पर ग्रामीण, सुदूरवर्ती और प्रथम पीढ़ी अध्ययन करने वाले छात्रों और छात्राओं को अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने से वंचित करने की सरकारी नीति है। अगर प्रवेश परीक्षा हो रहा है तो उसके बाद न्यूनतम अंक निर्धारित करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि छात्र प्रवेश परीक्षा में अपने योग्यता का प्रदर्शन कर रहा है। इसलिए प्रवेश परीक्षा के आलावा न्यूनतम अंक निर्धारित करने की प्रासंगिकता नहीं है। अगर संस्थान अलग-अलग मेरिट रखेंगे तो उनमें एकरूपता कहाँ होगी? केंद्र को चाहिए कि शैक्षणिक संस्थानों में एकरूपता लाने के लिए एक कानून बनाये जिसको सभी विश्वविद्यालय और संघटक कॉलेज पालन करें। सभी शैक्षणिक संस्थानों में एकरूपता लाना सीयूईटी के मूल मकसद में से एक है जिससे सबको समान अवसर मिले तो फिर अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों में एक पाठ्यक्रम के न्यूनतम योग्यता में विविधता होना उसके मूल उद्देश्य के खिलाफ होगा।

इस देश के बड़े हिस्से में एनसीईआरटी की किताबें नहीं पढ़ाई जाती है। इसलिए वे छात्र प्रभावित होंगे जो राज्य बोर्ड से पढ़ते है और इससे सीबीएसई बोर्ड के छात्रों को लाभ होगा जिसमें अधिकतम अच्छी आर्थिक स्थिति के बच्चे पढ़ते हैं। सरकार अक्सर अमीर आश्रित नीतियां बनाती है। ये नीति भी उन्ही में से एक साबित होगी क्योंकि प्रस्तावित प्रवेश परीक्षा सीबीएसई पैटर्न पर आधारित होगी। हालाँकि एनसीईआरटी की किताबें मेरे अनुभव में सभी बोर्डों की किताबों से अच्छी हैं। इसलिए गणित, विज्ञान, अर्थशास्त्र ...... इत्यादि को (साहित्य को छोड़ कर) सभी स्कूल बोर्डों में अनिवार्य कर देना चाहिए। साहित्य का पाठ्यक्रम जैसे हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी ..... इत्यादि सम्बंधित राज्यों को निर्धारित करना चाहिए। ऐसा करने से कई फायदे एक साथ सध जायेंगे जो सरकारों का उद्देश्य भी है और चुनौती भी। सभी स्कूल बोर्डों में एनसीईआरटी लागू करने से देश की शिक्षा में एकरूपता आयेगा जिसका लाभ न सिर्फ सीयूईटी में मिलेगा बल्कि जितनी भी संयुक्त प्रवेश परीक्षाएं होती है जैसे आईo आईo टीo, एनo ईo ईo टीo, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी..... इत्यादि सभी में राज्य बोर्डों के छात्र-छात्राओं की हिस्सेदारी बढ़ेगी और दूसरा इससे निजी स्कूलों की किताबों पर हो रही लूट को ख़त्म किया जा सकेगा जिससे अभिभावकों को आर्थिक शोषण से बचाया जा सकता है।  

सामान्य वर्ग की फीस 650 रुपया है। ईडब्ल्यूएस और ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर की फीस 600 रुपया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पीडब्ल्यूडी और थर्ड जेंडर के लिए 550 रुपया फीस निर्धारित है। भारत सरकार ने बीपीएल को भी फीस में छूट देने का प्रावधान बनाया है। राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी और यूजीसी के नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे बीपीएल छात्रों और छात्राओं की फीस भारत सरकार के छूट नीति के तहत निर्धारित करें। सामान्य वर्ग की फीस से ईडब्ल्यूएस और ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर को 50 रुपया कम और ईडब्ल्यूएस और ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर की फीस से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पीडब्ल्यूडी और थर्ड जेंडर को 50 रुपया कम करने से कल्याण पर क्या प्रभाव होगा? क्या इतना कम छूट का प्रावधान जानबूझकर इस लिए बनाया गया है ताकि आरक्षण होना और आरक्षण न होना लगभग बराबर हो या इसका खास असर न हो? यूजीसी नेट में एनटीए सामान्य वर्ग से 50% कम फीस ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर को और ओबीसी नॉन क्रीमीलेयर से 50% कम फीस अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पीडब्ल्यूडी और थर्ड जेंडर को देने का प्रावधान है। यूजीसी के नीति निर्माताओं को चाहिए कि वे भारत सरकार द्वारा बनाये गए ‘शुल्क में छूट’ नियमों के तहत आरक्षित वर्गों की शुल्क निर्धारित करें।

संयुक्त प्रवेश परीक्षा करवाने के तीन मॉडल हो सकते है। पहला विश्वविद्यालयों का एक संगठन बनाकर प्रवेश परीक्षा की जिम्मेदारी किसी एक विश्वविद्यालय को दे देना। दूसरा केंद्र और राज्य सरकारें राष्ट्रीय और राज्य प्रवेश परीक्षा एजेंसी बना कर सम्बंधित शैक्षणिक संस्थानों में संयुक्त प्रवेश परीक्षा करवायें। तीसरा और सबसे सशक्त तरिका होगा अगर संघ लोक सेवा आयोग और राज्यों के लोक सेवा आयोगों को सम्बंधित शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला के लिए प्रवेश परीक्षा करवाने का भी दायित्व दे दिया जाय। ज्ञात हो कि अभी तक संघ लोक सेवा आयोग और लोक सेवा आयोग सिर्फ केंद्र और राज्य के लिए नौकरियों के लिए प्रवेश परीक्षा करवाते है। अगर इसमें कानूनन संशोधन करके दो अलग-अलग विभाग बना दिया जाय जिसमें एक विभाग नौकरियों में प्रवेश परीक्षा करवाये और एक विभाग शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला के लिए प्रवेश परीक्षा करवाये तो यह स्थाई समाधान होगा। आईo आईo टीo, आईo आईo एमo, एनo ईoईo टीo समेत सभी केंद्रीय शैक्षणिक संस्थाओं को संघ लोक सेवा आयोग से जोड़ देना चाहिए और सभी राज्य शैक्षणिक संस्थाओं में होने वाले संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं को सम्बंधित राज्यों के लोक सेवा आयोगों से जोड़ देना चाहिए। भारत एक कल्याणकारी राज्य होने के नाते सरकार इन आयोगों से चाहे तो निःशुल्क प्रवेश परीक्षा करवा सकती है जिससे गरीब और अमीर सभी तबके के सभी छात्रों-छात्राओं को समान अवसर मिलेगा और परिणाम स्वरुप शिक्षा का विस्तार होगा जो यूजीसी, सरकार और विश्व समुदायों सभी का लक्ष्य है।  या इसके अलावा अगर सरकारें पूरा खर्च उठाने में सक्षम नहीं है तो सम्बंधित आयोग न्यूनतम शुल्क पर प्रवेश परीक्षा करवा सकती है। अगर सरकारें कोई आर्थिक सहयोग नहीं देतीं  हैं तो सम्बंधित आयोग नो प्रॉफिट नो लॉस के सिद्धांत पर प्रवेश परीक्षा करवा सकती है। तीसरे मॉडल के तीनों विकल्प ठेके पर प्रवेश परीक्षा करवाने के तुलना में एक अच्छा और आदर्श विकल्प होंगे।

सीयूईटी लागू करने के फायदे है लेकिन संशोधन करने के बाद और अगर संशोधन नहीं किया गया तो इससे नुकसान भी होगा जिसका नकारात्मक असर गरीब, ग्रामीण तबके और सुदूरवर्ती क्षेत्र के छात्रों और छात्राओं पर सबसे ज्यादा पड़ेगा। इसके अलावा जो छात्र-छात्राएं अच्छे संसाधनों से वंचित है उन पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इसके लिए सरकार, गैर सरकारी संगठन और सिविल सोसाइटी सबकों आगे आना चाहिए जिससे सभी तबके के छात्रों और छात्राओं को समान अवसर मिल सके। केंद्र सरकार के स्कूल बोर्ड अमीर छात्रों के स्कूल बोर्ड माने जाते है। अगर पाठ्यक्रम में बिना एकरूपता लाये सीयूईटी सीबीएसई पैटर्न पर करवाया जायेगा तो इससे राज्य बोर्ड के छात्रों और छात्राओं का नुकसान होगा। इस नुकसान से बचने और स्कूली शिक्षा में एकरूपता लाने के लिए सभी स्कूल बोर्डों में एनसीईआरटी अनिवार्य रूप से लागू करवा देना चाहिए। सीयूईटी विवरण-पुस्तिका के अनुसार इस प्रवेश परीक्षा में हिंदी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम, उर्दू, असमिया, बंगाली, पंजाबी, ओडिया और अंग्रेजी समेत कुल तेरह भाषाओं में प्रश्न पत्र आयेगा। क्या भारत में सिर्फ तेरह भाषाओं में स्कूल बोर्ड की पढ़ाई होती है? उन राज्यों के स्कूल बोर्डों में जहाँ इन तेरह भाषाओं के आलावा किसी अन्य भाषा में पढ़ाई होती है उन राज्यों के छात्रों का नुकसान होगा। इसकी भरपाई कैसे होगी? सरकार के नीति निर्माताओं को चाहिए कि जितने भाषाओं में स्कूल बोर्ड की पढ़ाई होती है उन सभी भाषाओं में प्रवेश पत्र का माध्यम दें। जिससे किसी भी स्कूल बोर्ड के साथ अन्याय न हो। सरकार को चाहिए कि वे ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में परीक्षा केंद्र सुनिश्चित करे। ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में आन लाइन और ऑफ लाइन दोनों विकल्प दिया जाना चाहिए। पहले सीयूसीईटी पुरे भारत में नये केंद्रीय विश्वविद्यालय में स्नातक, परास्नातक एवं शोध पाठ्यक्रम में दाखिला लेने के लिए एक प्रवेश परीक्षा आयोजित करती थी। सीयूईटी को भी स्नातक के अलावा परास्नातक और शोध पाठ्यक्रम के साथ-साथ डिप्लोमा और विश्वविद्यालयों में होने वाले सर्टिफिकेट कोर्स के लिए भी लागू किया जाना चाहिए।

*लेखक: अर्थशास्त्र एवं आयोजन अध्ययन केंद्र, केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात में शोधार्थी है। उन्हें ईमेल <raghuyadav50@gmail.com> से संपर्क किया जा सकता है।

Friday 8 April 2022

सीयूईटी: अवसर और चुनौतियाँ

सीयूईटी: अवसर और चुनौतियाँ

सीयूईटी का पुरे देश में विरोध हो रहा है और इसे बंद करके पहले जैसी प्रणाली को लागु करने की मांग की जा  रही है। सही है। विरोध होना भी चाहिए क्योंकि पुरे देश से आने वाले ग्रामीण तबके के छात्रों पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा खास तौर से जो राज्य बोर्ड से पढ़ने वाले छात्र है। मेरे ख्याल से इसका विरोध सिर्फ  संशोधन के लिए होना चाहिए, सीयूईटी को बंद करके पहले जैसी प्रणाली के लिए नहीं क्योंकि अलग-अलग विश्वविद्यालयों का फॉर्म भरना, फीस जमा करना, परीक्षा देना इत्यादि चीजे सीमित अवसर कर देती है। अगर एक फॉर्म और परीक्षा से देश के किसी भी केंद्रीय विश्वविद्यालय में दाखिला पाने के अवसर हो तो यह अच्छा है और इसे होना चाहिए। इसकी मांग बहुत पहले से अकादमिक जगत में चल रही थी। यूपीए के कार्यकाल में सीयूसीईटी सभी नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए बनी थी। फिर बाद में कुछ राज्य विश्वविद्यालय भी जुड़े। अगर उस प्लान को पुरे देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जोड़ दिया जाय तो यह सराहनीय कदम है।

 वास्तव में सीयूईटी ठीक उसी तरह का एक यूनिक मॉडल होगा जैसे आईआईटी, आईआईऍम, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और अन्य इलीट इंस्टिटूशन्स में था। सीयूईटी को सिर्फ सभी सेंट्रल यूनिवर्सिटी के लिए लागु किया जाना चाहिए राज्य विश्वविद्यालय, डीम्ड विश्वविद्यायल और अन्य नहीं। लेकिन हां, सभी अलग-अलग राज्यों के राज्य विश्वविद्यालयों के लिए एक फार्म और एक परीक्षा होनी चाहिए जिससे उस राज्य के सभी विश्वविद्यालयों में दाखिला मिल सके। विश्वविद्यालयों में दाखिला पाने के लिए सिर्फ तीन प्रणाली हो सकती है। पहला इंट्रेंस एग्जाम दूसरा मिनिमम एलिजिबिलिटी के मेरिट के आधार पर और तीसरा प्रथम आगमन प्रथम स्वागतम के आधार पर। इसमें सबसे सशक्त और अच्छा इंट्रेंस प्रणाली है सरकार अक्सर अमीर आश्रित नीतियां बनती है। ये नीति भी उन्ही में में से एक है।

इस देश के बड़े हिस्से में एनसीईआरटी की किताबें नहीं पढ़ाई जाती है। इस लिए वे छात्र प्रभावित होंगे जो राज्य बोर्ड से पढ़ते है और इससे सीबीएसई बोर्ड के छात्रों को लाभ होगा जिसमें अधिकतम अच्छी आर्थिक स्थिति के बच्चे पढ़ते हैं। हालाँकि एनसीईआरटी की किताबें मेरे अनुभव में सभी बोर्ड की किताबों से अच्छी है। इसलिए गणित, विज्ञान, अर्थशास्त्र ...... इत्यादि को (साहित्य को छोड़ कर) सभी विद्यालयों में अनिवार्य कर देना चाहिए। साहित्य का पाठ्यक्रम जैसे हिंदी, इंगलिश, गुजराती, मराठी ..... इत्यादि सम्बंधित राज्यों को निर्धारित करना चाहिए।

Wednesday 1 December 2021

बाबू बागेश्वर यादव: एक बहुआयामी व्यक्तित्व

मेरे गांव के पड़ोसी गांव मसीविरमउवा (होशामपुर), आजमगढ़ में 1 दिसंबर 1912 को जन्में आदरणीय श्री बागेश्वर यादव जी उन गिने चुने वकीलों में थे जो समाज के नीचले तबके और गरीबों को उनका हक़ दिलाने के लिए लड़ते थे। वे सर्वग्राही नीति और निश्छल नीयत के धनी, मर्यादित वकील, समाज सुधारक, भविष्योन्मुखी, बेजुबानों के आवाज.... थे। मेरे बाबा जी मुझे बचपन में बाबू बागेश्वर जी के बारे में बताये थे कि वे जिस व्यक्ति का मुक़दमा लड़ते थे अगर वह गरीब है तो उस व्यक्ति से फीस नहीं लेते थे। वह व्यक्ति किसी सुदूर गांव से जिला पर (आजमगढ़ ) तारिक देखने गया है और अगर उसके पास पैसे नहीं है तो बाबू बागेश्वर जी उसे अपनी जेब से किराया देते थे। मेरे बाबा जी यह भी बताये थे कि बाबू बागेश्वर जी सामाजिक और धार्मिक कुरूतियों के खिलाप भी लड़ते थे। ज्ञात हो कि बाबू बागेश्वर जी जो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और मध्य प्रदेश के पूर्व राज्यपाल रहे बाबू रामनरेश यादव जी व पूर्व केंद्रीय मंत्री बाबू चंद्रजीत यादव जी जैसे असाधारण नेताओं के राजनीतिक गुरु रहे थे।


यूं तो अपना  आज़मगढ़ अपने अतीत में समाजवादी और मार्क्सवादी विचारधारा का गढ़ रहा है और आज भी है लेकिन जनपद मुख्यालय से सुदूर किसी ग्रामीण अंचल से जहाँ एक सदी पहले विद्यालयी इल्म पाना भी बहुत बड़ी बात थी, ऐसे दौर और परिवेश में उन्होंने वकालत किया। बाबू बागेश्वर जी जैसा आदर्श व्यक्तित्व और वंचितों का रहबर पैदा होना जो एक स्वनिर्मित मिशाल है, का तख़य्युल करना भी मुश्किल है लेकिन यह सच है।

एक ऐसा दौर जब समाज अंग्रजी हुकूमत के बर्बरता से ज़्यादा पोंगापंथ के बर्बरता से परेशान था जिसके कारण समाज का एक बड़ा तबका शोषित रहा, उस दौर में समाज के शोषितों के इस्मत को समझना और बदलाव की शरार उछालना एक बड़ी बात थी। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उठी वो बदलाव की शरार जिससे अवाम जुड़ा और आगे चलकर जो परिवर्तन की मशाल बनीं। यह मशाल जुल्मत में मजलूमों के लिए जिया फ़रोश बनी जो आगे चलकर सामाजिक यकजिहदी का बेजोड़ मिशाल बनी। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि बाबू बागेश्वर जी जैसा व्यक्तित्व देश में कदाचित मिलते है जो अवाम में समाज बदलाव की ललक जगाये। 

आजमगढ़ को वैचारिकगढ़ के रूप में परिपक़्व बनाने में अनेकानेक ऋषि-मुनियों, चिंतकों, विद्वानों, साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता सेनानियों ..... इत्यादि लोगों का अमूल्य योगदान रहा है जिसमें बाबू बागेश्वर को एक इकाई के रूप में देखा जा सकता है। हमें नाज है बाबू बागेश्वर जी के कर्तव्यों पर जो बचपन में ही हम लोगों के लिए प्रेरणा श्रोत बने। मुझे गर्व इस बात पर भी है कि जिस स्कूल से मेरी शिक्षा शुरू हुई उस स्कूल का नाम बाबू बागेश्वर जी के नाम पर था।

भारतीय राजनीति का एक ऐसा दौर जब लोकतंत्र को शासन के सह पर कमजोर किया जा रहा हो, जब व्यवस्था नाज़ियत के दौर से गुजर रही हो तो हमें बाबू बागेश्वर जी को एक आदर्श पथ प्रदर्शक के रूप में याद करने की जरुरत है। भारतीय न्याय का एक ऐसा दौर जब वकालत सिर्फ एक धंधे तक सीमित हो तो हमें बाबू बागेश्वर जी को एक आदर्श वकील के रूप में याद करने की जरुरत है। भारतीय समाज का एक ऐसा दौर जब वैज्ञानिक सोच से ज्यादा ऐसे सोच और गतिविधियों पर बल दिया जाय जिससे धर्म निरपेक्ष के प्रतिमान क्षरित हो रहे हो तो हमें बाबू बागेश्वर जी को एक आदर्श समाज सुधारक के रूप में याद करने की जरुरत है।

श्री बागेश्वर जी के जयंती पर हम श्रद्धांजलि-श्रद्धा-सुमन अर्पित करते है। 

 साभार:

राघवेंद्र- आजमगढ़ 

01/12/2021

 

Wednesday 9 June 2021

बिरसा मुंडा: एक मसीहा

 आदिवासी जननायक,  महापुरुष, और समाज सुधारक बिरसा मुंडा ने 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में उलगुलान आन्दोलन  को अंजाम दिया। कहते है इतिहास भगवान से भी बड़ा होता है क्योकि भगवान सिर्फ भविष्य बनाता और बिगाड़ता है भूतकाल को नहीं छेड़ सकता लेकिन इतिहास भूतकाल को भी बनाता और बिगाड़ता है. इतिहास की मार खाने वालो में एक प्रमुख नाम श्री बिरसा मुंडा जी का भी है. बिरसा जी को इतिहास ने चाहे जितना रौंदा हो लेकिन वे आज भी लाखो लोगो के लिए वैचारिक ऊर्जा के केंद्र है जिन्हे दलित समाज भगवान की तरह पूजता है.

बिरसा मुण्डा  ने मुण्डा विद्रोह पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया. बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत  सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया.   9 जून बिरसा मुंडा जी के पुण्य तिथि  पर हम श्रदांजलि-श्रद्धा-सुमन अर्पित करते है।






Wednesday 4 November 2020

संजय साहनी: बदलाव की नई कहानी

 

संजय साहनी: बदलाव की नई कहानी

राघवेंद्र यादव *

चंद्रमणि **

 

परिचय और संघर्ष:

संजय कुमार (सहनी) पिछले 8 सालों से नागरिक समस्याओं के समाधान, किसानों, मजदूरों और मजलूमों की आवाज बनते रहें हैं। बात चाहे मनरेगा के तहत लोगों (महिला और पुरुष) को रोजगार दिलवाने में मदद की हो या लाकडाउन के समय पूरे भारत में फंसे हुए बिहार के प्रवासी कामगारों को सहयोग करने की या फिर खाद्यान्न के जमाखोरों के खिलाफ लड़ाई लड़कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत परिवारों को निर्धारित राशन सुनिश्चित कराने की; इन सब में संजय सहनी अग्रणीय रहें हैं। वे महिलाओं, श्रमिकों व अल्पसंख्यकों को संगठित कर पितृसत्ता, उच्च-जाति के भेद-भाव और शासन एवं प्रशासन की कुव्यवस्था के खिलाफ जमीनी स्तर पर लड़ रहें हैं। भारतीय नागरिकों को संविधान के भाग-चार, राज्य के नीति निदेशक तत्व तथा अन्य में यह व्यवस्था की गई है कि राज्य लोगों के लिए भोजन, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बुढ़ापा, निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त करने का प्रभावी उपबंध करेगा। किंतु ये अधिकार महज कागजी सिद्ध  होते है। इन अधिकारों को पाने के लिए लोग लम्बे समय से संघर्षरत है लेकिन दुर्भाग्य यह कि राजनैतिक महत्वाकांक्षा में पार्टियों को सिर्फ़ सत्ता ही दिखती हैं, उन्हें जन-कल्याण के लिए उनके बुनियादी जरूरतें नहीं।

 भारतीय राजनीति के अतीत में, राजनीति के बड़े हिस्से पर सामंतियों का अबैध कब्ज़ा रहा है। वे सत्ता हासिल करने के लिए कट्टा और गट्टा का इस्तेमाल करते रहे है। भारतीय राजनीति को कट्टा और गट्टा की लड़ाई भी कही जाती है। आज भी इसपर (राजनीति) अप्रत्यक्ष रूप से धनपशुओं और बाहुबलियों का कब्ज़ा है। वास्तव में ऐसी स्थितियां हमें यह सोचने पर विवश करती है कि क्या यही लोकतंत्र है जिसकी बात भारत के संविधान के प्रस्तावना में की गई है? भारतीय राजनीति के इस बाजारवाद में  एक मनरेगा मजदूर का विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में आना किसी वर्तमान चमत्कार से कम नहीं है। वो भी उस दौर में जब गिरते राजनीतिक स्तर की वजह से “भले लोग” राजनीति में आने से कतरा रहें हो। ऐसा नहीं है कि इसके पहले भारतीय राजनीति के इतिहास में कोई व्यक्ति अंतिम पायदान से राजनीति में नहीं आया है लेकिन इनकी संख्या अत्यल्प रही है। इक्कीशवी शदी का दूसरा दशक बाहुबल का चरमोत्कर्ष होगा। इसके बाद भारतीय राजनीति में बाहुबल का ह्रास होगा। यह बदलाव की मांग है कि अब कट्टा और गट्टा से लड़ाई नहीं बल्कि लड़ाई कलम और जमीनी संघर्ष से होगी। अगर संजय सहनी विधायक चुनकर आते है तो वे संविधान प्रदत्त अधिकारों को जारूकता के माध्यम से लोक-अनुक्षेत्र में लाएंगे। इसका लाभ पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे इसके लिए संघर्ष करेंगे।

शिक्षा:

वह बिहार जो अपने अतीत में शिक्षा एवं समृद्धि के मामलों में विश्व विख्यात था। जब पूरे विश्व में अशिक्षितों की संख्या वृहद थी तब यहाँ (बिहार में) नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय ज्ञान की अलख जगा रहे थे। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि वर्तमान में बिहार में स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक की हालत बेहद खस्ता हो गई है जिसके कारण गुणवत्तापरक शिक्षा पाने के लिए यहाँ से प्रतिभावों को पलायन करना पड़ता है। बिहार में कुछ एक विश्वविद्यालयों को छोड़कर ज्यादातर विश्वविद्यालय के सत्र लेट है। ऐसे में कई युवाओं को रोजगार पाने  में परेशानियाँ होती है। अगर यह कहा जाय कि यह विलम्ब व्यवस्थात्मक रूप से प्रायोजित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इन मुद्दों को आज राजनीतिक पार्टियां अपना चुनावी एजेंडा नहीं बनाती जबकि ये मुख्य एजेंडे में होना चाहिए। वे (सभी राजनितिक पार्टियाँ) जाति-पाति की राजनीति में लोगों को बांध कर अपनी रोटियां सेंकती है। अगर जमीनी हकीकत की बात करें तो प्राथमिक/सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा नहीं मिल पा रही है। इसके कई वजहें है। एक तो अध्यापकों की कमी है दूसरे जो है उनमें अच्छी ट्रेनिंग का अभाव है। इसके आलावा कुछ शिक्षक-शिक्षिकाएं निर्धारित समय पर स्कूल नहीं आते अगर आते भी है तो उनमे कुछ समय पर कक्षाओं में नहीं जाते। स्कूलों में संसाधनों का अभाव भी शैक्षणिक पिछड़ेपन का एक बड़ा वजह है। बिहार के कुछ जिलों और केन्द्रों पर यह भी पाया गया है कि कागज़ पर नामांकन कुछ और है किन्तु वास्तविकता कुछ और है। शासन और प्रशासन इसका या तो निगरानी और निरीक्षण नहीं करते या ‘ले-दे’ कर मुद्दे को शांत कर देतें है। उच्च शिक्षा में यहाँ सरकारी स्तर पर रोजगारपरक शिक्षा देने वाले टेक्निकल कॉलेजों की कमी के कारण कई गरीब छात्र जिनके पास टैलेंट है किंतु पैसे नहीं वे दाखिला से वंचित रह जाते हैं। इन सभी मुद्दों के लिए संजय सहनी संघर्ष करेंगे।

स्वास्थ्य:

मुजफ्फरपुर क्षेत्र चमकी बुखार (एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम) से प्रभावित क्षेत्र है। यह बच्चों में पाई जाने वाली बीमारी हैं जो इसके आस-पास के जिलों में संभवतः अप्रैल-जून के बीच बड़े पैमाने पर होता आ रहा हैं किंतु स्वास्थ्य विभाग की लापरवाही, सुविधा एवं जागरूकता की कमी से अनेकानेक बच्चे साल दर साल बेमौत मर जाते है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों की कमी, अस्पताल में डाक्टर व अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की घोर कमी, आधुनिक जाँच मशीनों और दवाइयों की कम उपलब्धता इत्यादि कई महत्वपूर्ण कारण है जिससे इस तरह की अनैच्छिक घटनाएं होती है। परिणाम स्वरूप नवदीप के चिराग बिना जले ही बुझ जाते है। संजय सहनी अपने घोषणा पत्र में यह दावा किये है कि अगर वे विधायक चुनकर आते है तो मनियारी में बंद पड़े महंत दर्शन दास अस्पताल को पुनः चालू करवाएंगे तथा इसके साथ ही साथ कुढ़नी विधानसभा के अंतर्गत आने वाले बंद पड़े सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को तत्काल प्रभाव से पुनः चालू करवाएंगे। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पतालों का सही संचालन और उनमें आधुनिक सुविधा और पर्याप्त दवाइयां उपलब्ध करवाएंगे।

रोजगार:

सरकार की सबसे बड़ी नाकामी हैं बिहार में राज्याश्रित विभागों और संस्थाओं में सीटे खाली हैं किंतु सरकार उन रिक्तियों पर आज तक बहाली नहीं करवा पायी है। अगर वे विधायक बनकर आएंगे तो शिक्षकों एवं अन्य कर्मचारियों की नियुक्ति, ट्रेनिंग और जबाबदेही सुनिश्चित करवाएंगे। वे सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग को बढ़ावा देंगे जिससे घरेलू उद्योगों को मजबूती मिलेगी। संजय सहनी खुद एक मनरेगा मजदूर है वे सालों से इसके सही इम्प्लीमेंटेशन के लिए काम कर रहे हैं। वे इसकी  मजदूरी बढ़वाने के लिए विधानसभा में आवाज उठाएंगे। संजय सहनी अपने भाषणों और घोषणापत्र में यह दावा किये है कि सभी सरकारी अनुबंध कर्मचारियों, आशा कार्यकर्ता, आंगनवाड़ी सेविका, सहायिका, रोजगार सेवक सहित अन्य कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की मांग करेंगे तथा साथ ही इनके मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे। वे संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में रोजगार सृजित करेंगे। महिलाओं को सुरक्षा और सशक्तिकरण उनके संघर्षों के मूल में होगा। उनके घोषणा पत्र में यह भी दावा किया गया है कि सभी योग्य व्यक्तियों के लिए वृद्ध, विधवा और विकलांग पेंशन स्वीकृति करवाना तथा इसकी राशि बढ़वाना। सभी को राशन कार्ड निर्गत करवाना तथा उस पर सरकार द्वारा निर्धारित पूरा राशन उपलब्ध करवाना। यह अच्छी खबर है कि वैश्विक ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री प्रोफेसर ज्यां द्रेज जिन्होंने नरेगा योजना निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे संजय सहनी के पक्ष में कैम्पेन कर रहें हैं।

 

उद्योग और आधारभूत संरचना:

मुजफ्फरपुर जनपद उत्तर बिहार की कथित राजधानी हैं यहाँ कई बड़े प्रोजेक्ट्स जैसे - हवाईअड्डा, रेलवे कारखाना भारत वैगन, दवा की फैक्ट्री आईडीबीएल, मोतीपुर चीनी मिल जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय स्तर की इकाई बन्द हो गई जो लोगों के रोजगार एवं क्षेत्र के संरचनात्मक विकास और समृद्धि की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण थीं। दूरदर्शन केंद्र भी यहां बदहाली में अपनी आखिरी साँसे ले रहा हैं किंतु सोये जनप्रतिनिधियों का इससे कोई सरोकार नहीं हैं। वर्तमान नगर विधानसभा क्षेत्र से विधायक नगर विकास मंत्री हैं। मुजफ्फरपुर स्मार्ट सिटी घोषित होने के बाद भी यह लगातार अपने निम्न स्तर पर रहा जिसके लिए जनप्रतिनिधियों की उदासीन और ढुलमुल रवैया भी जिम्मेदार है। यदि महात्मा गाँधी सेतु के समानांतर रेलवे पुल बनाया जाय तो बिहार की समृद्धि को यह चार चांद लगायेगा। ज्ञात हो कि उत्तर बिहार को दक्षिण बिहार से जोड़ने में महात्मा गाँधी सेतु का महत्वपूर्ण योगदान हैं। अगर यह रेलवे कनेक्ट हो गया तो जनता और उद्यमियों का पैसा और समय दोनों बचेगा। इसके अलावा मुजफ्फरपुर लीची, लहठी और सूती कपड़ो के लिये विश्वविख्यात हैं किंतु जनप्रतिनिधियों का इसपर भी कोई ध्यान नहीं हैं जिसमें उद्योग की अपार संभावनाएं हैं लेकिन दुर्भाग्य कि न तो इसपर सरकारें (केंद्र और राज्य) ध्यान दे रही है और न ही उद्योगपति। यहाँ कंपिनयों को उचित साधन-संसाधन एवं उधमी को पर्याप्त सुरक्षा न मिलना भी मुख्य कारणों में रहा है। यहाँ की टूटी एवं सिमटी सड़कें तथा  जलजमाव से भरे नाले मुँह चिढ़ाते है। अगर संजय सहनी विधायक चुन कर आते है तो इन सभी मुद्दों पर प्रमुखता से ध्यान देंगे व इन सभी के लिए जमीनी संघर्ष करेंगे। कोसी नदी जिसे बिहार का शोक भी कहा जाता है, से बिहार बाढ़ प्रभावित रहता है। इससे बचाव के लिए मजबूत कदम उठाएंगे।



जनता से अपील:

वह बिहार जो कभी पूरे भारत का शासन मगध साम्राज्य के द्वारा पाटलिपुत्र (पटना) पर केंद्रित था। विश्व का प्रथम गणतंत्र घोषित करने वाला गणराज्य लिच्छवी गणराज्य ( वैशाली ) बिहार में ही अवस्थित हैं। आज बिहार जिन ऊंचाइयों को पाने के लिए लड़ रहा है वह इतिहास में बहुत पहले ही पा लिया था किंतु राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक लचर नीतियों और कुरीतियों की वजह से इससे वंचित है। इसलिए जनता को यह चाहिए कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, जाति-धर्म को छोड़कर, धन-बल और बाहु-बल को धक्का देकर, दल्लों-दलालों और चमचों को धिक्कारकर, धन-पशुओं को खदेड़कर, राजनीतिक घरानों के लाड़लों/लाड़लियों को नकारकर समाज के निचले पायदान से आने वाले ऐसे व्यक्ति को चुनें जो इस देश के हासिये के किसानों, मजदूरों, मजलूमों और वंचितों की आवाज बन सके। उनके दुःख-दर्द को महसूस करे तथा उसके लिए संघर्ष करे। हमें शासक नहीं, प्रतिनिधि चाहिए। हमें एक ऐसा समाज चाहिए जिसमें कतार में खडा आख़िरी व्यक्ति भी मर्यादा और सम्मान के साथ जीवन यापन कर सके।

 

 

*प्रथम लेखक: अर्थशास्त्र एवं आयोजन अध्ययन केंद्र, केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात में शोधरत है। raghavendra.pahal50@gmail.com पर संपर्क कर सकते है।

**द्वितीय लेखक: युवा समाजसेवी & नारायण नर्सिंग कॉलेज सासाराम बिहार में इंटर्न्स है।

Saturday 10 August 2019

"आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़"


"रूह-ए-आजमगढ़ में तामीर-ए-विश्वविद्यालय उतना ही प्रासंगिक है जितना किसी बेघर को घर देना।"
(राघवेन्द्र)


यह सर्वविदित है कि गुणवत्तापरक उच्च शिक्षा की जरुरत ने आजमगढ़ में विश्वविद्यालय की मांग के लिए प्रेरित किया। यहाँ के बुद्धजीवियों द्वारा यह भी कयास लगाया जा रहा है कि आजमगढ़ में विश्वविद्यालय बनने से यहाँ का बहुमुखी विकास होगा। उत्तर प्रदेश के विधान सभा में माननीय मुख्यमंत्री जी द्वाराआजमगढ़ में विश्वविद्यालय की घोषणा किये जाने के बाद से ही इसके स्थापना के लिए भूमि पर चर्चायें शुरू हो गई थीं। माननीय मुख्यमंत्री जी द्वारा आजमगढ़ दौरे के बाद इस पर प्रशासनिक कार्य भी तेजी से हुआ। उत्तर प्रदेश विश्वविद्यालय अधिनियम में संशोधन कर "आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़" बनाये जाने के बाद ये अतिआवश्यक हो चूका है। इस बीच समाचार के सुर्खियों से कुछ खबरें मिलती रही कि यहाँ जमीन मिली वहाँ जमीन मिली। यह भी खबर थीं कि विश्वविद्यालय के लिए 50 एकड़ जमीं पर्याप्त है। इस सन्दर्भ में ‘विश्वविद्यालय अभियान टीम’ के साथियों ने भी काफी खोज-बिन कर प्रशासन को सुझाव दिए। मैं उत्तर प्रदेश सरकार से यह अपील कर रहा हूँ कि "आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़" सिर्फ सर्टीफिकेट बाटने वाली संस्था न होकर यह पूर्ण-आवासीय और विश्व स्तरीय सुविधायुक्त विश्वविद्यालय हो।

आजमगढ़ की अवाम का आवाज बनकर मैं उत्तर प्रदेश सरकार से यह निवेदन कर रहा हूँ कि आजमगढ़ की आभा और प्रतिभा को ध्यान में रखते हुए "आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़" में उच्च शिक्षा से सम्बंधित प्राचीन पाठ्यक्रमों से लेकर नवीन पाठ्यक्रमों के लिए केंद्र/विभाग बनें। जहाँ से राज्य को और इस देश को बेहतर मानव संसाधन मिल सकें। यहाँ से अच्छे प्रशासक निकले, अच्छे वैज्ञानिक निकले, अच्छे समाज वैज्ञानिक निकले, अच्छे शिक्षाविद निकले, अच्छे इंजीनियर निकले, अच्छे प्रबंधक निकले, अच्छे  डाक्टर निकले, अच्छे नेता निकले, अच्छे अभिनेता निकले, अच्छे खिलाड़ी  ....... आदि निकले। एक ऐसा विश्वविद्यालय जो भारत को विश्व गुरु बनाने में नेतृत्व कर सके। इस तरह के विश्वविद्यालय के लिये 50 एकड़ जमीन बेहद संकुचित स्थान होगा। ज्ञात हो कि देश के और दुनिया के नामचीन विश्वविद्यालयों को ज्यादा जमीन आवंटित है। "आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़" के लिए कम से कम 250 एकड़ से 300 एकड़ के बीच होना चाहिए। आजमगढ़ ग्रामीण बाहुल्य इलाका है। मेरा निजी मानना है कि इस विश्वविद्यालय को शहर के भीड़-भाड़ से अलग खुले में एक ऐसे जगह पर होना चाहिए जहाँ पर यातायात की सुविधा उपलब्ध हो। मैं उत्तर प्रदेश सरकार से यह उम्मीद करता हूँ कि राजनीतिक आपा-धापी से ऊपर उठकर आजमगढ़ में विश्वविद्यालय की स्थापना की जायेगी।

मैं उत्तर प्रदेश सरकार से यह मांग करता हूँ कि सरकार "आजमगढ़ विश्वविद्यालय, आजमगढ़" के लिए एक कमेटी का गठन करे जो निष्पक्ष रूप से इसके लिए एक मॉडल विकसीत करे। जिसमें इसके स्थापना के लिए सबसे उपयुक्त जगह चिन्हित हो  और वहाँ की उपलब्धता और जरूरतों को ध्यान में रख कर कोर्स का सुझाव दे।
सधन्यवाद

राघवेन्द्र यादव 
आजमगढ़